16, Dec 2021 10:35 AM 215
चुनाव में नारे हार और जीत की दशा तय करते हैं. आजादी के बाद से देश में कई चुनाव हुए जिनमें चुनावी प्रचार प्रसार के दौरान नारों का भरपूर उपयोग किया गया. ये नारे सिर्फ जीत या हार की लिहाज से ही महत्वपूर्ण नहीं माने गए बल्कि एक नेता के छवि को जनता के बीच रखने का भी इसे अहम साधन बनाया गया.
चुनावी नारे लोगों एवं प्रातिद्वंदी की मानसिकता पर असर डालते हैं साथ ही देश की तत्कालीन स्थिति के बारे में भी हमें अवगत कराते हैं. नारे की एक महज वाक्य भर से जीत और हार की दिशा तय हो जाती है.
भारतीय इतिहास में विभिन्न चुनावों के दौरान कुछ ऐसे नारे दिए गये जिन्हें हमेशा याद किया जाता है और उन्हीं के आधार पर इस बात को दावे के साथ कहा जाता है कि नारे चुनाव में प्रत्याशियों की हार और जीत की दिशा तय करते हैं.
देश के कई चुनाव तो अकेले नारों के दम पर ही लडे गये जिसमें 1977 का चुनाव सबसे अहम माना जाता है.
इस लेख में हम देश के विभिन्न अहम चुनावों और उसमें लगे चुनिंदा चुनावी नारे एवं उनके परिपेक्ष्य को समझेंगे जिसने नारे के महत्त्व को नए आयाम पर ले जाने का काम किया. इस लेख से आपकी इस बात की समझ तैयार होगी कि इतिहास में जो चुनावी नारे दिए गए उस वक्त देश किस दौर से गुज़र रहा था और देश की क्या परिस्थितियां रही थी.
बात आजाद भारत के पहले लोकसभा चुनाव की है. साल था 1951-1952 का जब बैलगाड़ी चुनाव वाली कांग्रेस पार्टी ने नारा दिया गया कि ''खरो रुपयो चांदी को, राज महात्मा गांधी को''.
1952 के आम चुनाव तक महात्मा गांधी की मृत्यु हो चुकी थी लेकिन उस वक्त देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस चुनाव में महात्मा गांधी के नाम को ही ढो रही थी. लोग देश में कांग्रेस के राज को ही महात्मा गांधी का राज मानते थे. लिहाजा कांग्रेस ने महात्मा गांधी को आधार बनाकर ही 'खरो रुपयो चांदी को, राज महात्मा गांधी को'' का नारा दिया.
उस वक्त दीपक के चुनाव चिन्ह वाली जन संघ मुख्य विरोधी पार्टी हुआ करती थी जिसने कांग्रेस के नारे का प्रतिकार करते हुए नारा दिया "जली झोपड़ी भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल".
इस नारे का कांग्रेस ने फिर जवाब दिया और नारा दिया '"इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं". नारे की लड़ाई के बाद चुनाव परिणाम आया और नतीजा रहा कि प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की अगुआई में कांग्रेस ने इस चुनाव में एकतरफा जीत हासिल की. कहा जा सकता है कि नारे की लड़ाई में उस वक्त कांग्रेस ने जनसंघ को पटखनी दे दी थी.
याद रहे कि स्वतंत्र भारत के इस पहले चुनाव के दौरान देश की ऐसी हालत थी जहां औसतन हर 10 में बमुश्किल 2 लोग भी शिक्षित नहीं थे और मतदान बैलट पेपर के जरिए कराए गये थे.
1952 की चुनाव के बाद प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु का करिश्मा देश के लोगों की जहन में बस गया था. 1952 के बाद साल 1957 में देश का दूसरा आम चुनाव हुआ. नारों की लिहाज से इस चुनाव को भी काफी महत्वपूर्ण माना गया.
मैनपुरी में 1957 के लोकसभा चुनाव में एक नारे ने कांग्रेस प्रत्याशी को धूल चटा दी थी। निवर्तमान सांसद और कांग्रेस प्रत्याशी बादशाह गुप्ता चुनाव चिह्न बैलों की जोड़ी के साथ मैदान में थे। भारतीय जनसंघ प्रत्याशी चुनाव चिह्न दीपक के लिए वोट मांग रहे थे और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी वंशीदास धनगर चुनाव चिह्न झोपड़ी के साथ मैदान में थे।
प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की ओर से दिया गया नारा ‘कांग्रेस के बैल मरखने दीपक आग लगैया, मड़ैया मत भूल जइयो प्यारे वोटर भैया’ ने रातोंरात चुनाव की दिशा बदल दी और वंशीदास धनगर ने कांग्रेस प्रत्याशी को हराकर जीत हासिल की।
साल 1952 के कांग्रेस के जबरदस्त नारे के बाद 1957 में नारे की वजह से कांग्रेस प्रत्याशी की हार ने नारे की भूमिका को काफी अहम कर दिया.
अब साल था 1971 का जब कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी मैदान में थीं. उस वक्त कांग्रेस आपसी संघर्ष से जूझ रही थी. 1969 को तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी को अनुशासन तोड़ने पर कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया. इंदिरा ने कांग्रेस (आर) बनाई जबकि दूसरा धड़ा कांग्रेस (ओ) बना.
इतिहासकार रामचंद्र गुहा के मुताबिक किसी कॉपीराइटर ने सभी मुद्दों को समेटते हुए ‘इंदिरा हटाओ’ नारा गढ़ दिया. जवाब में इंदिरा गांधी कहती थीं ‘वे कहते हैं, इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ. इंदिरा का ये "गरीबी हटाओ'' का नारा उस वक्त लोगों को छू गया और इस तरह "गरीबी हटाओ'' के नारे ने ''इंदिरा हटाओ'' के नारे को जबर्दस्त मत दी. इंदिरा गांधी 1971 का चुनाव जीतकर देश की पहली प्रधानमन्त्री बनी.
देश की पहली प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने साल 1975 में देश में इमरजेंसी घोषित कर दिया. विपक्ष के कई बड़े और दिग्गज नेताओं को जेल में ठुंसा जाने लगा. इमरजेंसी के दौरान जबरन मर्दों की नसबंदी एवं अन्य ज्यादतियों के लिए जनता सरकार से खुन्नस खाए बैठी थी. इमरजेंसी खत्म किया गया और अचानक 1977 में आम चुनाव की घोषणा कर दी गई.
1977 के लोकसभा चुनाव को नारे की लिहाज से अहम तो माना ही गया साथ ही नारों के स्तर में भी गिरावट आई और तब नारों में बात पहले वाली बात नहीं रह गई. इमरजेंसी के दौरान की ज्यादतियों का असर चुनावी नारे पर पड़ा और इंदिरा पर कई शब्दों के हमले हुए जैसे- ''जमीन की चकबंदी में, मकान गया हदबंदी में. द्वार खड़ी औरत चिल्लाए, मेरा मरद गया नसबंदी में''.
एक और नारा था ''नसबंदी के तीन दलाल, इंदिरा संजय बंसीलाल'' जिसमें संजय गांधी और बंसीलाल का खूब नाम उछाला गया. 1975-77 के बीच देश के रक्षा मंत्री रहे बंसीलाल को इंदिरा और संजय गाँधी का बेहद ख़ास बताया जाता था.
साल 1975 में इंदिरा के धुर विरोधी रहे सम्पूर्ण क्रान्ति के जनक जय प्रकाश नारायण ने 1977 के चुनाव में इंदिरा के विरूद्ध एक बड़ा नारा दिया ''इंदिरा हटाओ, देश बचाओ''.
1977 का चुनाव कांग्रेस हार गई जिसका सबसे बड़ा नुकसान खुद इंदिरा को उठाना पड़ा. इंदिरा का गढ़ कहे जाने वाले रायबरेली सीट से इंदिरा चुनाव हार गयीं.
इंदिरा के हार के बाद कांग्रेस पार्टी परेशान थी कि आखिर किस तरह इंदिरा को लोकसभा भेजा जाए. व्यवस्था की गई और 1978 उपचुनाव के लिए कर्नाटक की चिकमंगलूर सीट खाली कराई गई. कांग्रेस के चंद्र गौड़ा उस सीट सांसद थे. अब इंदिरा का मुकाबला कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री वीरेंद्र पाटिल से था.
लड़ाई कठिन थी. जनता पार्टी ने इंदिरा को हराने के लिए पूरी ताकत झोंक दी. ऐसे में कांग्रेस में एक जबरदस्त नारे की जरूरत महसूस की गई जो इंदिरा के व्यक्तित्व को तो दर्शाता हो. साथ ही विरोधियों का मनोबल तोड़ सके. ऐसे में दक्षिण भारत के कांग्रेसी नेता देवराज उर्स ने ‘एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमंगलूर-चिकमंगलूर’ का नारा दिया.
इंदिरा ने अंतत: 77 हजार से ज्यादा वोटों से जीत दर्ज की. उनके खिलाफ लड़ रहे 26 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई.
आजादी के बाद से साल 1980 तक इस्तेमाल किए गये नारों से आप सभी समझ गये होंगे कि चुनाव में नारे किस कदर प्रभावी हो सकते हैं. साथ ही इससे देश की उस वक्त की तत्कालीन हालात का भी सटीक अंदाज इन नारों से लग पाया होगा.
ऐसा नहीं है कि नारों का इस्तेमाल सिर्फ जीत का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ही किया जाता है बल्कि चुनाव के पहले देश में जनता का दिल जीतने और विरोधियों का मनोबल तोड़ने के लिए भी इसका भरपूर इस्तेमाल किया जाता है.
साल 1980 के बाद भी चुनावी माहौल के बीच नारों को जबरदस्त वरीयता दी गई.
अब तक चुनाव में इस्तेमाल किए गए कुछ और प्रमुख नारों की भी लिस्ट आपको पढनी चाहिए:
जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा- 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस द्वारा दिया गया नारा.
मेरे खून का अंतिम कतरा तक इस देश के लिए अर्पित है – इंदिरा की हत्या के बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में कांग्रेस ने इंदिरा के इस कथन को बतौर नारा प्रयोग किया.
उठे करोड़ों हाथ हैं, राजीव जी के साथ हैं – इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ आम चुनाव में ये नारा गूंजा.
राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है- 1989 के चुनावों में वीपी सिंह को लेकर बना यह नारा काफी चर्चित रहा.
राजीव तेरा ये बलिदान याद करेगा हिंदुस्तान – 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी ने ये नारा दिया.
सबको देखा बारी-बारी, अबकी बार अटल बिहारी – 1996 में भाजपा द्वारा दिया गया नारा.
जात पर न पात पर मुहर लगेगी हाथ पर – 1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा दिया गया नारा
राम और रोम की लड़ाई – 1999 के चुनाव में बीजेपी की तरफ से सोनिया गांधी पर निशाना साधने वाला ये नारा भी सामने आया.
यूपी में है दम क्योंकि जुर्म यहां है कम– 2007 उत्तर प्रदेश विधानसभा के समय सपा द्वारा दिया गया नारा
गुंडे चढ़ गए हाथी पर गोली मारेंगे छाती पर–बसपा के नारे के खिलाफ विपक्षियों का चर्चित नारा
पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा– 2007 उत्तर प्रदेश विधानसभा के समय बसपा द्वारा दिया गया नारा
हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु महेश है– 2007 उत्तर प्रदेश विधानसभा के समय बसपा द्वारा दिया गया नारा
मां, माटी, मानुष – 2010 में बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान तृणमूल कांग्रेस द्वारा दिया गया नारा.
चलेगा हाथी उड़ेगी धूल, ना रहेगा हाथ, ना रहेगा फूल – बसपा का एक नारा.
ऊपर आसमान, नीचे पासवान – कभी बिहार में रामविलास पासवान को लेकर ये नारा काफी चर्चित था.
चढ़ गुंडन की छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर– बसपा द्वारा दिया गया एक नारा
अबकी बार मोदी सरकार– 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा द्वारा दिया गया नारा
कट्टर सोच नहीं युवा जोश– 2014 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा दिया गया नारा
मोदी है तो मुमकिन है- 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा द्वारा दिया गया नारा
अब होगा न्याय- 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा दिया गया नारा
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